सुप्रीम कोर्ट: मृत्युदंड तभी सुनाएं, जब उम्रकैद की सजा भी लगे कम
मध्य प्रदेश के सतना के एक स्कूल की बस के ड्राइवर सचिन कुमार सिंगराहा ने फरवरी, 2015 में 5 साल की बच्ची से दुष्कर्म करने के बाद उसे मारने के इरादे से घायल कर दिया था। बाद में बच्ची की अस्पताल में मौत हो गई थी। सचिन को निचली अदालत और फिर हाईकोर्ट ने दोषी करार देते हुए फांसी की सजा सुनाई थी। ड्राइवर ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी, जिस पर मंगलवार को जस्टिस एनवी रमाना, जस्टिस एमएम शांतानागौदार और जस्टिस इंद्रा बनर्जी ने सुनवाई की।
सुनवाई के दौरान तीनों जजों ने ड्राइवर की दोषमुक्त किए जाने की अपील को खारिज कर दिया। लेकिन साथ ही उसे निचली अदालत और फिर हाईकोर्ट से बरकरार रखी गई फांसी की सजा को भी खारिज कर दिया और कहा कि आरोपी के खिलाफ सुबूत मौजूद हैं, लेकिन रिकॉर्ड में सुबूतों की विसंगतियां और प्रक्रियागत खामी भी दर्ज की गई थी। इस टिप्पणी के साथ पीठ ने फांसी की सजा को 25 साल कैद की सजा में तब्दील कर दिया।
पीठ ने यह भी कहा कि आरोपी पर इससे पहले किसी तरह के अपराध का आरोप नहीं होने और उसके पिछले आचरण को ध्यान में रखते हुए हम आश्वस्त नहीं हैं कि उसके सुधरने की गुंजाइश कम थी।
एक ही लकीर पर चलने की परंपरा बदलिए
पीठ ने इस दौरान कहा कि अपराध से जुड़े तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही सजा तय की जानी चाहिए। आपराधिक मामले के ट्रायल में एक ही लकीर पर चलने की परंपरा को बदलना होगा। ट्रायल तटस्थ नजरिए के साथ तार्किक और यथार्थवादी सोच वाले होने चाहिए।
अपवाद ही रखिए मौत की सजा को
पीठ ने मृत्युदंड को 25 साल कैद में बदलने का ऐलान करते हुए कहा, यह पूरी तरह तय है कि उम्र कैद की सजा वह प्रावधान है, जिसके लिए मौत की सजा अपवाद मामले में ही दी जाती है। मृत्युदंड तभी दिया जाना चाहिए, जब उम्रकैद की सजा अपराध से जुड़े तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए बेहद कम लगे।