September 20, 2024

अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार बनने के बाद वहां 90 फीसदी से ज्यादा लोग गरीबी की मार झेल रहे

काबुल
अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार बनने के बाद से वहां की स्थिति दिन ब दिन बिड़ती जा रही है। वहां 90 फीसदी से ज्यादा लोग गरीबी की मार झेल रहे हैं। तालिबान के डर से महिलाएं घरों पर रहने को मजबूर हैं। तालिबान सरकार भी परेशानी में है। चरमपंथ की वजह से उसे कोई भी देश तालिनानी सरकार को मान्यता देने को तैयार नहीं है। पश्तो में छात्रों को तालिबान कहते हैं। 90 के दशक में जब रूस, अफगानिस्तान से अपने सैनिकों की वापसी कर रहा था, तब ये संगठन उभरा। इसकी शुरुआत धार्मिक संस्थानों में हुई।

 1996 में इस संगठन ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। यहां से देश पर चमरपंथी ताकतें राज करने लगीं। वे महिलाओं को पर्दे में रहने और पुरुषों के बगैर घर से न निकलने का आदेश देती थीं। इस्लामिक कानून इतनी कट्टरता से लागू किया कि संगीत पर भी बैन लगा दिया गया।

कट्टरता के चलते तालिबान को आतंकी संगठन का दर्जा दिया जाने लगा क्योंकि वे दूसरे देशों की सीमाओं तक भी अपनी कट्टरता पहुंचा रहे थे। अफगानिस्तान पर तालिबानी राज के दौर में केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी। सऊदी अरब, यूएई और पाकिस्तान। ये तीनों ही मुस्लिम बहुल देश हैं। अक्टूबर 2001 से लेकर दिसंबर के बीच अमेरिकी सेनाओं ने तालिबान को करीब करीब खत्म कर दिया था, लेकिन अंदर ही अंदर चिंगारी सुलगती रही। नतीजा बीस साल बाद इस गुट ने फिर काबुल में वापसी की। इस बार उसने अफगानिस्तान में चुनी हुई सरकार को गिरा दिया। इस माह तालिबानी राज को तीन साल हो चुके लेकिन कई देश इस संगठन को राजनैतिक मान्यता देने को राजी नहीं हैं।

मानवाधिकार, खासकर महिलाओं और बच्चियों पर हिंसा के बढ़ते मामलों के बीच दुनिया भर के देशों ने अफगानिस्तान में अपने दूतावास बंद दिए साथ ही तालिबान को देश के नेचुरल रूलर के तौर पर मान्यता देने से भी मना कर दिया। तालिबान को मान्यता न मिलने का खामियाजा उसे ही नहीं, बल्कि पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। उसे वर्ल्ड बैंक और इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड से तब तक कोई मदद नहीं मिलेगी, जब तक कि आधिकारिक दर्जा नहीं मिल जाता। आईएमएफ ने अफगानिस्ता के लिए सारे फंड निरस्त कर दिए हैं। अमेरिका समेत कई पश्चिमी देश अफगानिस्तान को सबसे ज्यादा लोन दे रहे थे। उसपर भी रोक लगा दी गई है।

तालिबानी के चरमपंथ के बावजूद कई देश काबुल से अपने डिप्लोमेटिक रिश्ते बना रहे हैं। इस साल अप्रैल में रूस ने मॉस्को स्थित अफगान एंबेसी तालिबानियों को सौंप दी। इसके अगले ही माह रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने तालिबान को आतंकी समूहों की लिस्ट से हटाने की बात करते हुए कहा कि मॉस्को को तालिबान से अच्छे संबंध रखने चाहिए। वहीं चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने तालिबानी अधिकारी को अफगान के राजदूत के तौर पर मान्यता दे दी। हालांकि बीजिंग ने अब तक तालिबान को अफगानिस्तान की वैध सरकार नहीं कहा है, लेकिन ये जरूर कह कि तालिबान को इंटरनेशनल कम्युनिटी से काटा नहीं जाना चाहिए। इनके अलावा पाकिस्तान, ईरान, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, अजरबैजान और खाड़ी देशों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है। वे इसे आर्थिक मदद भी करते हैं। यह साफ नहीं हो सका कि क्या इन सारे देशों ने आधिकारिक तौर पर इससे डिप्लोमेटिक संबंध भी बना रखे हैं।